सांप्रदायिकता से निपटने में धर्मनिरपेक्षता की भूमिका पर टिप्पणी कीजिए। Sampradayikta se nipatne mein dharmnirpekshta ki bhoomika par tippani kijiye

सांप्रदायिकता से निपटने में धर्मनिरपेक्षता की भूमिका पर टिप्पणी कीजिए।
B.A. – तृतीय वर्ष (2024–25), विषय: राज्य राजनीति, पेपर – II (A3–POSC 2T)
उत्तर – (1000 शब्दों में)


प्रस्तावना

भारत विविधताओं का देश है, जहाँ विभिन्न धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और सांस्कृतिक पहचानें सह-अस्तित्व में हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन जब कोई एक धर्म या समुदाय अपनी पहचान को दूसरों से श्रेष्ठ मानकर संकीर्ण राजनीति करता है, तो वह सांप्रदायिकता कहलाता है। भारत में यह एक गंभीर चुनौती बन चुका है। इस चुनौती से निपटने के लिए धर्मनिरपेक्षता (Secularism) एक प्रभावी उपाय सिद्ध होती है। धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का मूल आधार है, जो सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखने और धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर बल देता है।


सांप्रदायिकता क्या है?

सांप्रदायिकता का अर्थ है — किसी विशेष धर्म या संप्रदाय की संकीर्ण और पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से पक्ष लेना, और दूसरों के प्रति असहिष्णु होना। यह एक सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा है जो समाज को विभाजित करती है और सामाजिक सौहार्द को नष्ट करती है। भारत जैसे बहुधर्मी समाज में सांप्रदायिकता का प्रभाव विनाशकारी होता है।


भारत में सांप्रदायिकता के कारण

  1. धार्मिक विविधता – भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के अनुयायी हैं। धर्मों की यह विविधता कभी-कभी राजनीति के लिए एक अवसर बन जाती है।
  2. औपनिवेशिक विरासत – ब्रिटिश शासन के दौरान ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को बढ़ावा दिया।
  3. राजनीतिक स्वार्थ – कई बार राजनीतिक दल चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लेते हैं।
  4. धार्मिक असहिष्णुता – एक धर्म के प्रति कट्टरता और दूसरे धर्मों के प्रति घृणा भी सांप्रदायिकता को जन्म देती है।
  5. शिक्षा की कमी और अंधविश्वास – तर्कशील और वैज्ञानिक सोच की कमी से भी सांप्रदायिक मानसिकता पनपती है।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ

धर्मनिरपेक्षता (Secularism) का अर्थ है — राज्य का किसी भी धर्म से आधिकारिक रूप से न जुड़ना और सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना। भारतीय संदर्भ में इसका मतलब यह है कि:

  • सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है।
  • राज्य किसी विशेष धर्म को बढ़ावा नहीं देगा।
  • राज्य सभी धर्मों के साथ समान दूरी बनाए रखेगा।

भारत में धर्मनिरपेक्षता को संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में वर्णित किया गया है। 42वें संविधान संशोधन (1976) के द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को प्रस्तावना (Preamble) में जोड़ा गया।


धर्मनिरपेक्षता की विशेषताएँ

  1. धर्म की स्वतंत्रता – हर नागरिक को अपनी इच्छा अनुसार धर्म अपनाने, मानने और प्रचार करने का अधिकार है।
  2. समानता का सिद्धांत – सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाता है।
  3. राज्य और धर्म का पृथक्करण – राज्य किसी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करता, जब तक कि वह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के खिलाफ न हो।
  4. धार्मिक भेदभाव का निषेध – किसी नागरिक के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।

सांप्रदायिकता से निपटने में धर्मनिरपेक्षता की भूमिका

1. सभी धर्मों को समान अधिकार देना

धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित करती है कि किसी धर्म विशेष को न तो राज्य का समर्थन मिलेगा और न ही कोई धार्मिक समूह राज्य सत्ता पर एकाधिकार कर सकेगा। यह विचारधारा सांप्रदायिक राजनीति की जड़ काटती है।

2. राजनीति में धर्म के दखल को सीमित करना

धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म आधारित राजनीति को अस्वीकार करता है। यह राजनीतिक दलों को धर्म के नाम पर वोट मांगने से रोकता है। चुनाव आयोग और न्यायपालिका ने समय-समय पर धार्मिक आधार पर वोट माँगने को अवैध ठहराया है।

3. धार्मिक स्वतंत्रता के माध्यम से सौहार्द बढ़ाना

धर्मनिरपेक्षता हर व्यक्ति को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता देती है, जिससे विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच विश्वास और सौहार्द बनता है।

4. शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से

धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण शिक्षा प्रणाली में समावेशिता, सहिष्णुता और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देता है, जो सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को समाप्त करने में सहायक होता है।

5. धर्मनिरपेक्ष संविधान की भूमिका

संविधानिक प्रावधान जैसे कि समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25–28), और अल्पसंख्यकों के अधिकार (अनुच्छेद 29–30) धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को मजबूती देते हैं और सांप्रदायिकता को हतोत्साहित करते हैं।


उदाहरणों के माध्यम से समझना

  • अयोध्या विवाद: यह एक संवेदनशील सांप्रदायिक मुद्दा था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता और कानूनी सिद्धांतों के अनुसार फैसला दिया।
  • गोधरा कांड और गुजरात दंगे (2002): ऐसे दंगे यह दिखाते हैं कि किस तरह सांप्रदायिकता समाज को विभाजित कर सकती है और कैसे धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की अनदेखी भारी नुकसान पहुंचा सकती है।
  • सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक प्रतीकों की रोकथाम: राज्य सरकारें कभी-कभी धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए धार्मिक गतिविधियों को सीमित करने के निर्णय लेती हैं।

चुनौतियाँ

  1. राजनीतिक दलों की संकीर्ण नीतियाँ
  2. धार्मिक चरमपंथ और कट्टरता
  3. फेक न्यूज और सोशल मीडिया पर धार्मिक नफरत फैलाने वाली सामग्री
  4. अल्पसंख्यकों के प्रति असुरक्षा की भावना

समाधान

  1. धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली का विकास
  2. सख्त चुनाव नियम — धर्म आधारित राजनीति पर रोक
  3. मीडिया और सोशल मीडिया पर निगरानी
  4. नागरिक समाज और युवाओं की भूमिका

उपसंहार (निष्कर्ष)

भारत की बहुलतावादी संरचना को संरक्षित रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता अत्यंत आवश्यक है। सांप्रदायिकता जैसी विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं। धर्मनिरपेक्षता न केवल संवैधानिक मूल्य है बल्कि सामाजिक सौहार्द का आधार भी है। जब तक सभी धर्मों और समुदायों को समान सम्मान और अधिकार नहीं मिलते, तब तक सच्ची धर्मनिरपेक्षता संभव नहीं है। अतः, एक जागरूक, शिक्षित और धर्मनिरपेक्ष समाज ही सांप्रदायिकता से सफलतापूर्वक निपट सकता है और लोकतंत्र को सशक्त बना सकता है।


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