क्षेत्रीय पहचान का क्या अर्थ है?
(BA – तृतीय वर्ष, राजनीतिक विज्ञान, पेपर – II, विषय कोड: A3-POSC 2T)
शब्द सीमा: लगभग 1000 शब्द
प्रस्तावना:
भारत एक विशाल और विविधताओं वाला देश है। यहां विभिन्न भाषाएं, धर्म, जातियां, संस्कृतियां और परंपराएं विद्यमान हैं। ऐसी बहुलता वाले देश में क्षेत्रीय पहचान (Regional Identity) एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक अवधारणा बनकर उभरी है। क्षेत्रीय पहचान का तात्पर्य किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र के लोगों द्वारा साझा की गई सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई, आर्थिक और ऐतिहासिक विशेषताओं से है, जो उन्हें अन्य क्षेत्रों के लोगों से अलग करती है।
क्षेत्रीय पहचान की परिभाषा:
क्षेत्रीय पहचान वह सामाजिक और राजनीतिक चेतना है जिसमें किसी विशेष क्षेत्र के लोग स्वयं को एक पृथक सांस्कृतिक इकाई के रूप में पहचानते हैं और अपने क्षेत्रीय हितों, संस्कृति, भाषा, परंपराओं और पहचान की रक्षा तथा विकास के लिए संगठित होते हैं।
क्षेत्रीय पहचान के घटक:
क्षेत्रीय पहचान एक जटिल सामाजिक-राजनीतिक संरचना है, जो निम्नलिखित तत्वों पर आधारित होती है:
- भाषा: भाषा क्षेत्रीय पहचान का सबसे प्रभावशाली आधार होती है। जैसे – मराठी, तमिल, तेलुगु, बंगाली, पंजाबी आदि भाषाएं क्षेत्रीय अस्मिता को बल देती हैं।
- संस्कृति एवं परंपराएं: क्षेत्र विशेष की लोककला, लोकगीत, लोकनृत्य, त्योहार, रीति-रिवाज आदि एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का निर्माण करते हैं।
- इतिहास: किसी क्षेत्र का ऐतिहासिक अनुभव – जैसे संघर्ष, राज्य निर्माण, विजय, उत्पीड़न आदि – वहां की पहचान में गहराई से समाहित होता है।
- भौगोलिक स्थिति: भौगोलिक एकरूपता और प्रकृति की विशेषताएं (जैसे – पर्वतीय, तटीय, मैदानी क्षेत्र) भी क्षेत्रीय भावना को प्रभावित करती हैं।
- आर्थिक मुद्दे: क्षेत्रीय असंतुलन, आर्थिक पिछड़ापन, बेरोजगारी, संसाधनों पर अधिकार जैसे मुद्दे भी क्षेत्रीय पहचान को प्रबल करते हैं।
भारत में क्षेत्रीय पहचान का विकास:
भारत में क्षेत्रीय पहचान का विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिक स्पष्ट रूप में उभरा, विशेषकर जब केंद्र और राज्य के संबंधों में असमानता देखने को मिली। भारत में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन (1956) ने क्षेत्रीय पहचान को वैधता प्रदान की।
बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पंजाब, असम, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों में क्षेत्रीय पहचान को लेकर समय-समय पर आंदोलन भी हुए। इनमें से कुछ शांतिपूर्ण रहे तो कुछ उग्र रूप ले चुके हैं, जैसे:
- द्रविड़ आंदोलन (तमिलनाडु): उत्तर भारत के वर्चस्व के विरुद्ध सांस्कृतिक व भाषायी पहचान की मांग।
- खालिस्तान आंदोलन (पंजाब): एक पृथक सिख राज्य की मांग के तहत।
- बोडो आंदोलन (असम): अलग बोडोलैंड राज्य की मांग।
- तेलंगाना आंदोलन (आंध्र प्रदेश से पृथक): क्षेत्रीय पिछड़ेपन और स्वायत्तता की मांग।
क्षेत्रीय पहचान का महत्व:
- लोकतंत्र को मजबूती: यह स्थानीय लोगों को अपने अधिकारों और मुद्दों को उजागर करने का अवसर देता है।
- संविधान की संघीय भावना को प्रोत्साहन: क्षेत्रीय पहचान भारत के संघीय ढांचे को व्यवहार में प्रभावी बनाती है।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व: क्षेत्रीय पार्टियां स्थानीय मुद्दों को विधानसभा और संसद तक पहुंचाती हैं।
- सांस्कृतिक संरक्षण: यह स्थानीय भाषा, कला, संगीत, संस्कृति आदि के संरक्षण और प्रचार में सहायक होती है।
क्षेत्रीय पहचान से उत्पन्न चुनौतियाँ:
- राष्ट्रवाद को चुनौती: कभी-कभी क्षेत्रीय पहचान राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा बन जाती है। जैसे – पृथकतावादी आंदोलन।
- विकेंद्रीकरण की अति: अत्यधिक क्षेत्रीयता से केंद्र सरकार की शक्ति कमजोर हो सकती है।
- राजनीतिक अस्थिरता: कई बार क्षेत्रीय दल सरकार गिराने या ब्लैकमेल करने की स्थिति में आ जाते हैं।
- आंतरिक संघर्ष: भाषा, जाति या संसाधनों के आधार पर क्षेत्रीय टकराव, जैसे – महाराष्ट्र में “मराठी बनाम उत्तर भारतीय” विवाद।
भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका:
क्षेत्रीय पहचान के कारण भारत में कई प्रभावशाली क्षेत्रीय दलों का जन्म हुआ है, जैसे:
- DMK और AIADMK (तमिलनाडु)
- TMC (पश्चिम बंगाल)
- Shiv Sena (महाराष्ट्र)
- Akali Dal (पंजाब)
- BJD (उड़ीसा)
- TRS (तेलंगाना)
ये दल स्थानीय मुद्दों को उठाते हैं और अक्सर केंद्र की सरकार में भी साझीदार बनते हैं। इससे भारत की राजनीति में विविधता आती है लेकिन साथ ही कई बार अस्थिरता भी उत्पन्न होती है।
केंद्र–राज्य संबंधों पर प्रभाव:
क्षेत्रीय पहचान की राजनीति केंद्र और राज्य के संबंधों को प्रभावित करती है। कभी यह संघीय संरचना को सशक्त करती है, तो कभी संघर्ष का कारण भी बनती है। विशेष रूप से राष्ट्रपति शासन का दुरुपयोग और राज्यपालों की भूमिका विवादित हो जाती है।
समाधान और संतुलन:
- संघवाद को मजबूत करना: भारत के संघीय ढांचे को व्यवहार में सशक्त बनाया जाए।
- आर्थिक संतुलन: पिछड़े क्षेत्रों का विकास करके क्षेत्रीय असंतुलन को दूर किया जाए।
- सांस्कृतिक विविधता का सम्मान: “एकता में अनेकता” की भावना को व्यवहार में अपनाया जाए।
- संवाद और भागीदारी: क्षेत्रीय दलों और संगठनों को राष्ट्रीय विकास में सहभागी बनाया जाए।
उपसंहार:
क्षेत्रीय पहचान भारतीय लोकतंत्र की एक सशक्त विशेषता है, जो सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को अभिव्यक्त करती है। यह लोगों को अपने क्षेत्र की संस्कृति, भाषा और जरूरतों के प्रति सजग बनाती है। हालाँकि यदि यह अतिवादी रूप ले ले, तो यह राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल सकती है। इसलिए क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पहचान के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है, जिससे भारत एक मजबूत और विविधतापूर्ण लोकतंत्र बना रह सके।
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