प्रश्न: ‘कश्मीर मुद्दा’ स्वतंत्र भारत के लिए क्यों चुनौती बन गया?
विषय: भारतीय राज्य राजनीति (राजनीति विज्ञान)
पत्र-II | बीए तृतीय वर्ष | सत्र: 2024–25 | शब्द सीमा: लगभग 1000 शब्द
भूमिका:
कश्मीर मुद्दा भारत की स्वतंत्रता के समय से ही एक अत्यंत संवेदनशील, जटिल और बहुआयामी राजनीतिक चुनौती बनकर उभरा है। यह न केवल भारत की आंतरिक संप्रभुता और एकता से जुड़ा हुआ है, बल्कि इसकी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, पड़ोसी देशों के साथ संबंध और सांप्रदायिक सद्भाव पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
कश्मीर का भारत के साथ विलय 26 अक्टूबर 1947 को हुआ, जब महाराजा हरि सिंह ने “इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन” पर हस्ताक्षर किए। इसके पश्चात भारतीय सेना ने कबायली आक्रमणकारियों से कश्मीर को मुक्त कराने की कार्रवाई की। परंतु यह मामला जल्द ही संयुक्त राष्ट्र में पहुँच गया, जहाँ पाकिस्तान ने कश्मीर विवाद को अंतर्राष्ट्रीय बना दिया।
2. संविधानिक विशेष दर्जा (अनुच्छेद 370 और 35A):
- अनुच्छेद 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त था। इससे राज्य को संविधान के कई प्रावधानों से छूट मिली थी।
- अनुच्छेद 35A ने राज्य सरकार को अधिकार दिया था कि वह “स्थायी निवासियों” की परिभाषा तय कर सके और बाहर के लोगों को संपत्ति खरीदने से रोके।
यह विशेष दर्जा देश के भीतर “समानता” और “एक भारत” की भावना के विपरीत समझा गया, जिससे राष्ट्रवाद बनाम क्षेत्रीय स्वायत्तता की बहस को बढ़ावा मिला।
3. पाकिस्तान का हस्तक्षेप और आतंकवाद:
कश्मीर मुद्दे को भारत-पाकिस्तान के संबंधों में संघर्ष का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। पाकिस्तान ने इसे “अधूरे विभाजन” का मुद्दा बताया और कश्मीर को अपने “इस्लामी गणराज्य” का हिस्सा बनाने का दावा किया।
- 1947, 1965, 1971 और 1999 (कारगिल युद्ध) में कश्मीर को लेकर संघर्ष हुए।
- 1989 के बाद से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने घाटी की शांति को छिन्न-भिन्न कर दिया।
- युवाओं को भड़काकर आतंकवाद की ओर ले जाना, स्कूल-कॉलेज बंद होना, सेना पर हमले – इन सब ने इस मुद्दे को और जटिल बना दिया।
4. जनसंख्या में सांप्रदायिक विभाजन और विस्थापन:
कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुल जनसंख्या है, जबकि जम्मू हिन्दू बहुल और लद्दाख बौद्ध बहुल क्षेत्र है। 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन एक मानवीय त्रासदी बन गया। इससे सांप्रदायिक तनाव और भी गहरा हुआ।
5. राजनीतिक अस्थिरता और विश्वास की कमी:
कश्मीर की राजनीति में लंबे समय से अविश्वास, अलगाववाद और केंद्र-राज्य संबंधों में दरार रही है।
- चुनावों में धांधली के आरोप (विशेषकर 1987 का विधानसभा चुनाव),
- अलगाववादी ताकतों का समर्थन,
- केंद्र द्वारा राज्य सरकारों को बर्खास्त करना,
- युवाओं का लोकतंत्र में विश्वास खोना — इन सभी कारणों ने वहां की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर किया।
6. अंतर्राष्ट्रीय दबाव और कूटनीतिक जटिलताएं:
कश्मीर को पाकिस्तान और चीन के माध्यम से एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिशें होती रही हैं।
- संयुक्त राष्ट्र में यह मुद्दा कई बार उठा।
- पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों (OIC, संयुक्त राष्ट्र, इस्लामी राष्ट्रों) पर इस मुद्दे को उठाता है।
- अमेरिका, चीन जैसे बड़े देशों ने भी कई बार इस पर बयान दिए हैं।
भारत के लिए यह स्थिति संप्रभुता की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है।
7. अनुच्छेद 370 की समाप्ति (2019) और नई चुनौती:
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 और 35A को हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख) में विभाजित कर दिया। यह निर्णय ऐतिहासिक था लेकिन इससे कुछ नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुईं:
- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध,
- पाकिस्तान का आक्रामक रुख,
- घाटी में संचार और इंटरनेट बंदी,
- राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी,
- स्थानीय असंतोष की संभावना बढ़ना।
हालांकि इसके समर्थक इसे “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की दिशा में बड़ा कदम मानते हैं।
8. वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ:
हाल के वर्षों में कश्मीर में कई विकास योजनाएं शुरू हुई हैं, जैसे कि:
- पर्यटन को बढ़ावा देना
- बुनियादी ढांचे का विकास
- नौकरियों और उद्योगों को प्रोत्साहन
फिर भी, सुरक्षा बलों पर हमले, आतंकी गतिविधियाँ, पत्थरबाजी की घटनाएं, विदेशी एजेंसियों द्वारा फंडिंग – ये सारी समस्याएं अभी भी सक्रिय हैं।
9. मीडिया और सूचना युद्ध:
सोशल मीडिया के युग में अफवाहों, फर्जी खबरों और प्रचार के माध्यम से आम जनता को भ्रमित करने की प्रवृत्ति भी कश्मीर मुद्दे को चुनौतीपूर्ण बना रही है।
- इंटरनेट के जरिए चरमपंथी विचारों का प्रचार
- युवाओं का कट्टरपंथ की ओर झुकाव
- वैश्विक मीडिया द्वारा पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग
10. समाधान की संभावनाएं:
(क) राजनीतिक संवाद:
कश्मीर के सभी वर्गों से संवाद और विश्वास निर्माण आवश्यक है।
(ख) आर्थिक विकास:
शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग और पर्यटन में निवेश से युवाओं को वैकल्पिक भविष्य मिल सकता है।
(ग) सांस्कृतिक समरसता:
अलगाववाद को दूर करने के लिए भारतीय संस्कृति, भाषा, कला और मीडिया की भूमिका अत्यंत आवश्यक है।
(घ) आतंकवाद पर कठोर नीति:
सीमा पार से आतंकवाद रोकने के लिए रक्षा और कूटनीतिक प्रयास मजबूत बनाए जाने चाहिए।
निष्कर्ष:
कश्मीर मुद्दा स्वतंत्र भारत के लिए इसलिए चुनौती बना क्योंकि यह केवल भौगोलिक विवाद नहीं, बल्कि धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, कूटनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय आयामों से जुड़ा हुआ है। हालांकि समय के साथ कई सकारात्मक परिवर्तन भी हुए हैं, लेकिन तब तक यह चुनौती बना रहेगा जब तक वहां स्थायी शांति, समावेशी विकास और जनभावनाओं का सम्मान सुनिश्चित नहीं होता।
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