राजनीतिक विज्ञान (भारत में राज्य राजनीति) – पेपर-II
विषय: भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के पक्ष और विपक्ष के तर्क
उत्तर – 1000 शब्दों में (हिंदी में)
परिचय
भारत एक विविधतापूर्ण देश है जहाँ अनेक भाषाएँ, धर्म, जातियाँ और सांस्कृतिक समूह विद्यमान हैं। भारत की आज़ादी के बाद, सबसे जटिल और संवेदनशील मुद्दों में से एक था — राज्यों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन। यह मुद्दा न केवल प्रशासनिक दृष्टिकोण से बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में प्रांतों की सीमाएँ ऐतिहासिक, राजनीतिक या औपनिवेशिक कारणों से निर्धारित थीं, जो भाषाई या सांस्कृतिक वास्तविकताओं को पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करती थीं। इसी असंतोष ने भाषाई पुनर्गठन आंदोलन को जन्म दिया।
भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- स्वतंत्रता के तुरंत बाद, कई क्षेत्रों में भाषाई आधार पर राज्य की माँग तेज हो गई। खासकर आंध्र प्रदेश में तेलुगु भाषियों ने मद्रास से अलग राज्य की माँग की।
- 1953 में पोट्टी श्रीरामुलु की भूख हड़ताल और मृत्यु के बाद आंध्र प्रदेश की स्थापना हुई।
- इन आंदोलनों के कारण 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission – SRC) का गठन हुआ जिसकी अध्यक्षता फज़ल अली ने की। आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1956 का राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित हुआ।
भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के पक्ष में तर्क
1. भाषा सांस्कृतिक पहचान का प्रमुख आधार है
भाषा किसी व्यक्ति की सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान से गहराई से जुड़ी होती है। जब एक भाषा-विशिष्ट राज्य बनता है, तो वहां की संस्कृति, साहित्य, कला और लोकपरंपराओं को संरक्षित किया जा सकता है।
2. प्रशासनिक सुविधा
जब एक राज्य में सभी लोग एक ही भाषा बोलते हैं, तो प्रशासनिक कामकाज अधिक प्रभावशाली और सुगम हो जाता है। सरकारी योजनाओं, नीतियों और सेवाओं को स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराना नागरिकों को अधिक अधिकार देता है।
3. राजनीतिक प्रतिनिधित्व में सुधार
भाषाई राज्य बनने से उस क्षेत्र के लोगों को अपने समाज और भाषा के अनुसार नेतृत्व और प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है, जिससे लोकतांत्रिक भागीदारी सशक्त होती है।
4. क्षेत्रीय असंतोष का समाधान
भारत जैसे विविध देश में यदि भाषाई पहचान को नजरअंदाज किया जाए तो क्षेत्रीय असंतोष और अलगाववाद जन्म ले सकते हैं। पुनर्गठन से ऐसे तनावों को नियंत्रित किया जा सकता है।
5. समान विकास की संभावना
भाषाई राज्यों के निर्माण से छोटे क्षेत्रों को अधिक स्वतंत्रता और विकास की संभावना मिलती है, जैसे उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ के निर्माण के बाद वहाँ विकास की नई राहें खुलीं।
भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विरोध में तर्क
1. राष्ट्र की एकता को खतरा
भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण करने से क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे राष्ट्रीय एकता कमजोर हो सकती है। यह खतरा रहता है कि लोग पहले अपनी भाषा को प्राथमिकता दें और राष्ट्र की भावना पीछे छूट जाए।
2. भाषा के नाम पर राजनीति और संघर्ष
भाषाई राज्यों के निर्माण से राजनीतिक दल भाषा के नाम पर वोट बैंक की राजनीति करने लगते हैं। इससे भाषाई संघर्ष, हिंसा और विरोध प्रदर्शन जैसे परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में मराठी बनाम उत्तर भारतीय विवाद।
3. बहुभाषी क्षेत्रों में समस्याएँ
भारत में कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ एक से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। ऐसे क्षेत्रों को किसी एक भाषा के अधीन रखना वहां की अन्य भाषाओं और समुदायों के साथ अन्याय हो सकता है। जैसे – मुंबई में गुजराती और मराठी भाषियों के बीच संघर्ष।
4. आर्थिक असंतुलन और संसाधनों की असमानता
भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण आर्थिक विकास को ध्यान में रखे बिना किया जाता है तो संसाधनों का असमान वितरण हो सकता है, जिससे नए राज्यों में गरीबी और पिछड़ापन बना रह सकता है।
5. नई मांगों को बढ़ावा
एक बार जब भाषा के आधार पर राज्य बन जाते हैं, तो अन्य भाषाई समूहों को भी यही अधिकार चाहिए होता है, जिससे राज्यों के विभाजन की मांगें बार-बार उठती रहती हैं। इससे देश का प्रशासनिक ढाँचा जटिल और अस्थिर हो सकता है।
समकालीन परिप्रेक्ष्य में उदाहरण
- तेलंगाना का निर्माण (2014) – आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना का निर्माण भाषाई, सांस्कृतिक और विकासात्मक असंतोष के आधार पर हुआ।
- गोरखालैंड आंदोलन – दार्जिलिंग क्षेत्र में नेपालीभाषी समुदाय ने अलग राज्य की मांग की।
- बोडोलैंड आंदोलन – असम में बोडो समुदाय की सांस्कृतिक पहचान की रक्षा हेतु आंदोलन।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि भाषाई पहचान अभी भी राज्य राजनीति में एक निर्णायक तत्व है।
निष्कर्ष
भारत जैसे बहुभाषीय राष्ट्र में भाषा पर आधारित राज्यों का पुनर्गठन एक जटिल और संवेदनशील विषय है। यह न तो पूरी तरह से सही कहा जा सकता है और न ही पूरी तरह से गलत। यह आवश्यकता है कि पुनर्गठन करते समय केवल भाषाई तर्कों पर नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी विवेकपूर्ण निर्णय लिया जाए।
समरसता और राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता देते हुए, क्षेत्रीय पहचान और भाषा को सम्मान देना ही भारतीय लोकतंत्र की सच्ची शक्ति है। सरकार को चाहिए कि भाषाई विविधता को विभाजन की वजह न बनाकर, इसे समावेशिता और सशक्तिकरण का साधन बनाए।
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