अंतर–राज्यीय जल विवादों के निपटारे के लिए कौन–सा निकाय कार्य करता है? Antar–raajyey jal vivaadon ke niptaare ke liye kaun–sa nikay kaarya karta hai

प्रश्न:
अंतर–राज्यीय जल विवादों के निपटारे के लिए कौन–सा निकाय कार्य करता है?
(उत्तर – लगभग 1000 शब्दों में)


भूमिका

भारत में जल संसाधन एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मुद्दा है। चूंकि अधिकांश नदियाँ एक से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं, इसलिए राज्यों के बीच जल के बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। ऐसे विवादों को अंतर–राज्यीय जल विवाद कहा जाता है। इन विवादों के निपटारे के लिए भारत सरकार द्वारा समय–समय पर कुछ संवैधानिक और वैधानिक प्रावधानों के तहत विभिन्न निकायों की स्थापना की गई है।

इस उत्तर में हम अंतर–राज्यीय जल विवादों की प्रकृति, कारण, प्रमुख विवादों का उल्लेख और विशेष रूप से जल विवाद अधिकरण (Water Disputes Tribunal) की भूमिका पर विस्तृत चर्चा करेंगे।


अंतर–राज्यीय जल विवादों की प्रकृति और कारण

भारत एक संघात्मक गणराज्य है जहाँ जल का प्रबंधन मुख्य रूप से राज्य सरकारों के अधीन आता है, लेकिन जब कोई नदी या जलधारा एक से अधिक राज्यों से होकर बहती है, तब उसका उपयोग विवाद का विषय बन जाता है।

प्रमुख कारण:

  1. जल संसाधनों की सीमित उपलब्धता: बारिश पर निर्भर होने के कारण भारत में जल की उपलब्धता अनिश्चित है।
  2. नदियों का बहु-राज्यीय प्रवाह: अधिकांश नदियाँ एक से अधिक राज्यों से गुजरती हैं।
  3. राजनीतिक हित: राज्य सरकारें चुनावी लाभ के लिए जल विवादों को भुना सकती हैं।
  4. अनुचित समझौते या वितरण: जल के बंटवारे की पुरानी नीतियाँ वर्तमान जरूरतों के अनुसार असंतुलित हो सकती हैं।
  5. जल संरचनाओं का निर्माण: एक राज्य द्वारा किए गए बाँध या नहर निर्माण से नीचे बहने वाले राज्य को नुकसान हो सकता है।

अंतर–राज्यीय जल विवादों के समाधान के लिए कार्यरत निकाय

1. जल विवाद अधिनियम, 1956 (Inter-State River Water Disputes Act, 1956)

भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 262 के अंतर्गत ‘अंतर–राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956’ पारित किया। इस अधिनियम के तहत केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह ऐसे जल विवादों के निपटारे के लिए अधिकरण (Tribunal) की स्थापना करे।

2. जल विवाद अधिकरण (Water Disputes Tribunal)

जल विवाद अधिकरण वह प्रमुख निकाय है जो अंतर–राज्यीय जल विवादों के निपटारे के लिए गठित किया जाता है। यह एक अर्ध-न्यायिक संस्था होती है जो केंद्र सरकार द्वारा गठित की जाती है।

प्रक्रिया:
  • यदि दो या दो से अधिक राज्यों के बीच जल विवाद उत्पन्न होता है और वे आपसी सहमति से समाधान नहीं कर पाते हैं, तो केंद्र सरकार को शिकायत प्राप्त होने पर जाँच करानी होती है।
  • यदि यह पाया जाता है कि वास्तव में विवाद है और उसका न्यायिक समाधान आवश्यक है, तो एक जल विवाद अधिकरण की स्थापना की जाती है।
  • यह अधिकरण न्यायपालिका के वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा संचालित होता है।
  • इसका निर्णय अंतिम होता है और भारत के किसी भी न्यायालय में उसके खिलाफ अपील नहीं की जा सकती (संविधान के अनुच्छेद 262 के तहत)।

जल विवाद अधिकरण की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. स्वतंत्र निकाय: यह केंद्र सरकार द्वारा गठित एक स्वतंत्र निकाय होता है।
  2. न्यायिक प्रक्रिया: यह न्यायिक प्रक्रिया का पालन करता है — साक्ष्य, गवाह, सुनवाई आदि।
  3. निर्णय बाध्यकारी: इसका निर्णय राज्यों पर बाध्यकारी होता है।
  4. कार्यकाल: अधिकरण का कार्यकाल विवाद के समाधान तक होता है।

प्रमुख जल विवाद अधिकरण

1. कावेरी जल विवाद अधिकरण (Cauvery Water Disputes Tribunal – CWDT):

  • राज्य: तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और पुडुचेरी।
  • स्थापना: 1990 में की गई।
  • विवाद का कारण: कावेरी नदी के जल के वितरण को लेकर।
  • निर्णय: 2007 में दिया गया लेकिन विवाद लगातार बना रहा, अंततः 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम फैसला सुनाया।

2. कृष्णा जल विवाद अधिकरण:

  • राज्य: महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना।
  • पहला अधिकरण: 1969 में गठित हुआ।
  • दूसरा अधिकरण: 2004 में पुनः गठित किया गया।

3. नर्मदा जल विवाद अधिकरण:

  • राज्य: मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान।
  • स्थापना: 1969 में।
  • निर्णय: 1979 में जल के वितरण के नियम बनाए गए।

अन्य उपाय और संस्थाएं

1. केंद्रीय जल आयोग (Central Water Commission – CWC):

  • यह एक तकनीकी निकाय है जो जल संसाधनों के प्रबंधन और सुझाव देने का कार्य करता है। हालांकि इसका कार्य निर्णय लेना नहीं, बल्कि सलाह देना है।

2. जल संसाधन मंत्रालय (Ministry of Jal Shakti):

  • यह मंत्रालय नीतिगत फैसले, राज्यों के बीच समन्वय और योजनाओं को क्रियान्वित करने में सहयोग करता है।

3. सुप्रीम कोर्ट (कुछ मामलों में):

  • हालांकि अनुच्छेद 262 के अनुसार उच्चतम न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती, फिर भी संविधान और मूल अधिकारों के उल्लंघन के संदर्भ में राज्य सुप्रीम कोर्ट का रुख करते हैं।

जल विवाद अधिकरणों की समस्याएं और आलोचना

  1. विलंब: निर्णय देने में वर्षों लग जाते हैं। जैसे कावेरी विवाद में निर्णय आने में 17 साल लगे।
  2. राजनीतिक हस्तक्षेप: कई बार निर्णयों के क्रियान्वयन में राजनीति आड़े आती है।
  3. निर्णयों का पालन न होना: कुछ राज्य अधिकरण के निर्णय को मानने से इनकार कर देते हैं।
  4. पुनः विवाद का जन्म: एक बार निर्णय हो जाने के बाद भी पुनः विवाद खड़ा हो सकता है।

वर्तमान सुधार प्रयास

2019 में केंद्र सरकार ने जल विवाद अधिनियम में संशोधन प्रस्तावित किया, जिसमें:

  • स्थायी अधिकरण की स्थापना का प्रस्ताव था, जिससे हर नए विवाद के लिए नया ट्रिब्यूनल न बनाना पड़े।
  • निर्णय की समयसीमा को भी सीमित करने का प्रस्ताव था (जैसे 3 साल के भीतर निर्णय देना)।

निष्कर्ष

भारत जैसे संघीय देश में अंतर–राज्यीय जल विवाद एक स्वाभाविक स्थिति है। इन विवादों को सुलझाने के लिए जल विवाद अधिकरण एक प्रभावी कानूनी उपाय है, लेकिन इसके कार्य में समयबद्धता, निष्पक्षता और कार्यान्वयन की सख्ती ज़रूरी है। जल जीवन का आधार है, अतः इसे राजनीति से परे रखकर राज्यों को आपसी सहयोग, तकनीकी वैज्ञानिक पद्धतियों और न्यायिक निर्णयों का सम्मान करते हुए विवादों को सुलझाना चाहिए।


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