अल्पसंख्यकों की राजनीति के क्या प्रमुख मुद्दे हैं? Alpsankhyakon ki raajneeti ke kya pramukh mudde hain?

अल्पसंख्यकों की राजनीति के प्रमुख मुद्दे
(Bachelor of Arts – Third Year, Political Science – A3-POSC 2T)
शब्द सीमा – लगभग 1000 शब्द
विषय – राज्य राजनीति में अल्पसंख्यकों की राजनीति


प्रस्तावना:

भारत एक बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक और बहुभाषी देश है, जिसमें विभिन्न समुदायों, जातियों और धर्मों के लोग सह-अस्तित्व में रहते हैं। इस विविधता के चलते “अल्पसंख्यकों की राजनीति” (Minority Politics) एक अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय बन जाती है। भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों को विशेष संरक्षण और अधिकार दिए गए हैं ताकि वे मुख्यधारा की राजनीति और सामाजिक विकास में सम्मिलित हो सकें। लेकिन यथार्थ में अल्पसंख्यकों की राजनीति कई बार विवादास्पद मुद्दों से भी जुड़ी रही है।


अल्पसंख्यक की परिभाषा:

भारतीय संदर्भ में अल्पसंख्यक उन समुदायों को कहा जाता है जिनकी संख्या बहुसंख्यक जनसंख्या की तुलना में कम होती है। यह धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक या जातीय आधार पर हो सकता है। भारत सरकार ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में छह समुदायों को मान्यता दी है:

  1. मुस्लिम
  2. ईसाई
  3. सिख
  4. बौद्ध
  5. जैन
  6. पारसी (ज़ोरोएस्ट्रियन)

अल्पसंख्यकों की राजनीति के प्रमुख मुद्दे:

1. राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी:

अल्पसंख्यकों को अक्सर यह शिकायत रहती है कि उन्हें राजनैतिक दलों और विधायिका में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। विशेषकर मुस्लिम समुदाय, जो भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या है, उसके अनुपात में संसद और विधानसभाओं में सीटें बहुत कम हैं।

2. सांप्रदायिकता और असुरक्षा की भावना:

सांप्रदायिक दंगे, नफरत फैलाने वाली राजनीति और अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ के रूप में प्रस्तुत करना उनके बीच असुरक्षा की भावना को जन्म देता है। यह स्थिति अल्पसंख्यकों को कट्टरपंथ की ओर भी ले जा सकती है।

3. धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत कानून:

धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन जीने का अधिकार संविधान में दिया गया है। लेकिन यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (UCC) जैसे मुद्दों पर बहस ने अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक पहचान को लेकर चिंतित किया है।

4. शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन:

सच्चर कमेटी (2006) की रिपोर्ट ने स्पष्ट रूप से बताया कि विशेषकर मुस्लिम समुदाय सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा हुआ है। इस स्थिति के सुधार के लिए योजनाएँ बनीं, लेकिन व्यावहारिक कार्यान्वयन में कमी रही।

5. आरक्षण की माँग:

कुछ अल्पसंख्यक समुदायों ने शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की माँग की है। मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिलने से वे आरक्षण के लाभों से वंचित रहते हैं।

6. धार्मिक स्थलों की सुरक्षा और नियंत्रण:

धार्मिक स्थलों की देखरेख और सरकारी हस्तक्षेप (जैसे कि वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर नियंत्रण) भी एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा रहा है। कई बार यह टकराव और अविश्वास को जन्म देता है।

7. अल्पसंख्यकों का राजनीतिक उपयोग (Tokenism):

कई बार राजनैतिक दल केवल चुनावी लाभ के लिए अल्पसंख्यकों को प्रतीकात्मक रूप में शामिल करते हैं, लेकिन उनकी समस्याओं के स्थायी समाधान नहीं किए जाते। इसे ‘टोकनिज़्म’ कहा जाता है।

8. धर्मांतरण और “घर वापसी” अभियान:

धर्मांतरण का मुद्दा भी अल्पसंख्यक राजनीति को प्रभावित करता है। ‘घर वापसी’ जैसे अभियानों और जबरन धर्मांतरण के आरोपों ने बहस को और अधिक तीव्र बना दिया है।

9. नागरिकता और पहचान से जुड़े मुद्दे:

NRC (National Register of Citizens) और CAA (Citizenship Amendment Act) जैसे कानूनों को लेकर भी अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय में भय और असुरक्षा की भावना बढ़ी है। इसे उनकी नागरिकता और पहचान पर खतरे के रूप में देखा गया।

10. राज्य स्तर पर क्षेत्रीय असंतुलन:

राज्यों में कुछ क्षेत्रों में अल्पसंख्यक बहुसंख्यक भी हैं (जैसे जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम, पंजाब में सिख, नगालैंड में ईसाई)। इन राज्यों में अल्पसंख्यक की परिभाषा और राजनीति के आयाम कुछ भिन्न होते हैं।


अल्पसंख्यकों की राजनीति का प्रभाव:

  • राजनीतिक ध्रुवीकरण:
    अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर दलों की अलग-अलग नीतियाँ समाज में ध्रुवीकरण पैदा करती हैं। इससे वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा मिलता है।
  • संविधान की धर्मनिरपेक्ष छवि पर प्रभाव:
    जब धर्म के आधार पर राजनीति होती है, तो यह भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप (Secular Character) को चुनौती देती है।
  • संघवाद पर असर:
    जब केंद्र और राज्य सरकारों के दृष्टिकोण में अंतर होता है (जैसे NRC या CAA पर), तब संघीय ढाँचे में खिंचाव आ जाता है।

समाधान और सुझाव:

  1. शिक्षा और रोजगार में अवसरों की समानता
  2. धार्मिक स्वतंत्रता का संवैधानिक संरक्षण सुनिश्चित करना
  3. राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देना
  4. समावेशी विकास की नीतियों का निर्माण
  5. धर्म आधारित घृणा अपराधों (Hate Crimes) पर सख्त कानून और कार्यवाही
  6. मीडिया और राजनीति में जिम्मेदार व्यवहार
  7. सामाजिक समरसता और आपसी संवाद को बढ़ावा देना

निष्कर्ष:

अल्पसंख्यकों की राजनीति भारतीय राज्य राजनीति का एक जटिल लेकिन आवश्यक भाग है। जब तक समाज में समावेशी सोच, संवैधानिक मूल्यों और समान अवसरों को बढ़ावा नहीं मिलेगा, तब तक अल्पसंख्यकों की राजनीति विवादों और असंतोष से घिरी रहेगी। लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ तभी सिद्ध होगा जब हर नागरिक — चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या भाषा से जुड़ा हो — समान अधिकारों और अवसरों का अनुभव करे।


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