राज्यपाल की भूमिका राज्य की राजनीति में कैसे विवादास्पद हो सकती है? Rajyapal ki bhoomika rajya ki rajneeti mein kaise vivadaspad ho sakti hai

राज्यपाल की भूमिका राज्य की राजनीति में कैसे विवादास्पद हो सकती है?
(Bachelor of Arts – तृतीय वर्ष | विषय: भारतीय राज्य राजनीति | कोड: A3-POSC 2T | शब्द सीमा: लगभग 1000 शब्द)


परिचय

भारतीय संघीय व्यवस्था में राज्यपाल की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। संविधान ने उन्हें राज्य में केंद्र का प्रतिनिधि बताया है। यद्यपि वे एक संवैधानिक प्रमुख होते हैं, लेकिन व्यवहार में उनकी भूमिका कई बार विवादास्पद बन जाती है, विशेषतः जब वे अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग राजनीतिक परिस्थितियों में करते हैं। इस लेख में हम राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका, उनके विवादास्पद निर्णयों, तथा राजनीतिक दखल की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करेंगे।


राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 162 तक राज्यपाल की नियुक्ति, शक्तियाँ, और कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। राज्यपाल का कार्य राज्य में केंद्र का प्रतिनिधित्व करना होता है और वे राज्य की कार्यपालिका के प्रमुख होते हैं। उनकी मुख्य भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं:

  1. विधायी कार्य: राज्यपाल विधानसभा को भंग करने, सत्र बुलाने और अधिवेशन को स्थगित करने का अधिकार रखते हैं।
  2. कार्यकारी कार्य: वे मंत्रिपरिषद की नियुक्ति करते हैं तथा मुख्यमंत्री को पद की शपथ दिलाते हैं।
  3. विवेकाधीन शक्तियाँ: कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल अपने विवेक का प्रयोग करते हैं, जैसे कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सरकार बनवाना।
  4. विशेषाधिकार: अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों में वे विशेष प्रशासनिक अधिकार रखते हैं।

राज्यपाल की भूमिका विवादास्पद क्यों होती है?

1. केंद्र के प्रतिनिधि बनकर कार्य करना

राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, जिससे उनकी राजनीतिक निष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगते हैं। जब राज्य में विपक्षी दल की सरकार होती है, तब यह आरोप लगते हैं कि राज्यपाल केंद्र के इशारों पर काम करते हैं। इससे संघीय ढांचे की आत्मा को चोट पहुँचती है।

2. सरकार बनाने में भूमिका

त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में यह देखा गया है कि राज्यपाल ने बहुमत सिद्ध करने के लिए एक खास दल को प्राथमिकता दी या बहुमत न होते हुए भी सरकार बनवाने का आमंत्रण दिया। उदाहरणस्वरूप:

  • कर्नाटक 2018: भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया गया जबकि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन बहुमत में था।
  • महाराष्ट्र 2019: रातोंरात राष्ट्रपति शासन हटाकर सरकार बनाने की शपथ दिलाई गई, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया।

3. विधानसभा सत्र बुलाने में हस्तक्षेप

कुछ राज्यों में राज्यपाल ने विधानसभा सत्र बुलाने में जानबूझकर देरी की या सत्र बुलाने से इनकार कर दिया, जैसे:

  • पंजाब 2023: राज्यपाल ने आप सरकार द्वारा बुलाए गए सत्र को अनुमति नहीं दी।
  • यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत राज्यपाल को प्राप्त है, लेकिन इसका प्रयोग राजनीतिक मंशा से किया गया प्रतीत होता है।

4. विधेयकों की स्वीकृति में देरी

राज्यपाल कई बार राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं करते या अनावश्यक रूप से विलंब करते हैं, जिससे प्रशासनिक कार्य बाधित होते हैं। जैसे:

  • तमिलनाडु और केरल में राज्यपालों ने कई विधेयकों को महीनों तक लंबित रखा।
  • सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में इस पर कड़ी टिप्पणी की कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते।

5. विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में हस्तक्षेप

राज्यपाल कई राज्यों में विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं। यहाँ भी उनका दखल विवादास्पद रहा है, विशेषतः कुलपतियों की नियुक्तियों में। इस पर केरल और पश्चिम बंगाल में लगातार संघर्ष की स्थिति रही है।


राजनीतिक दलों के दृष्टिकोण से विवाद

  • विपक्षी दलों का आरोप होता है कि राज्यपाल केंद्र की भाजपा सरकार के “राजनीतिक एजेंट” बन गए हैं।
  • सत्तारूढ़ दल, जब राज्य और केंद्र में एक पार्टी होती है, तब राज्यपाल को ‘लोकतंत्र के रक्षक’ की तरह प्रस्तुत करते हैं।
  • यह दोहरी स्थिति राज्यपाल की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करती है।

संवैधानिक प्रावधान बनाम व्यावहारिक उपयोग

राज्यपाल का पद मूलतः गैर-राजनीतिक और तटस्थ माना गया है। लेकिन व्यवहार में वे कई बार संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं। यह संकट संघीय ढांचे की जड़ों को कमजोर करता है।


महत्वपूर्ण सुझाव एवं सुधार

  1. राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव – सुप्रीम कोर्ट और सर्करिया आयोग ने सुझाव दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति को एक समिति की सिफारिशों पर करनी चाहिए, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता हों।
  2. राज्यपाल का कार्यकाल सुनिश्चित हो – पांच वर्षों के कार्यकाल को नियमित बनाया जाए और अनुचित हस्तक्षेप पर समीक्षा की व्यवस्था हो।
  3. विवेकाधीन शक्तियों की व्याख्या स्पष्ट हो – राष्ट्रपति शासन लागू करने या सरकार गठन के मामलों में न्यायिक समीक्षा का दायरा सुनिश्चित हो।
  4. राज्यपालों के लिए आचार संहिता लागू हो – उन्हें स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए जाएं कि वे राजनीतिक बयानबाजी या पार्टीगत पक्षपात से बचें।

निष्कर्ष

राज्यपाल की भूमिका यदि संविधान के मूल सिद्धांतों के अनुरूप रहे, तो वह राज्य में लोकतंत्र को सुदृढ़ कर सकती है। परंतु जब वह राजनीतिक उपकरण बन जाए, तो राज्य की स्वायत्तता और संघीय ढांचा दोनों खतरे में पड़ जाते हैं। अतः यह आवश्यक है कि राज्यपाल की भूमिका का पुनः मूल्यांकन किया जाए और उन्हें निष्पक्ष, तटस्थ और मर्यादित संवैधानिक पदाधिकारी के रूप में ही सीमित रखा जाए। तभी भारतीय लोकतंत्र की जड़ें और अधिक गहरी हो सकेंगी।


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