जातिगत ध्रुवीकरण क्या होता है? Jaatigat dhruvikaran kya hota hai

जातिगत ध्रुवीकरण क्या होता है?
(Bachelor of Arts – तीसरा वर्ष – राजनीतिक विज्ञान – राज्य राजनीति)
उत्तर शब्द सीमा: 1000 शब्द


प्रस्तावना

भारतीय लोकतंत्र में जाति एक अत्यंत प्रभावशाली सामाजिक संरचना रही है, जिसने राजनीति को गहराई से प्रभावित किया है। जातिगत ध्रुवीकरण का आशय उस राजनीतिक प्रक्रिया से है जिसमें जातियों का समूह किसी एक राजनीतिक दल या विचारधारा के पक्ष में संगठित हो जाता है। यह प्रवृत्ति राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, सत्ता संघर्ष और चुनाव परिणामों को दिशा देने में अत्यंत प्रभावशाली होती है।


जातिगत ध्रुवीकरण की परिभाषा

जातिगत ध्रुवीकरण (Caste Polarization) एक ऐसी राजनीतिक स्थिति है जिसमें विभिन्न जातियाँ या उपजातियाँ किसी विशेष राजनीतिक दल, नेता या विचारधारा के पक्ष में एकजुट होकर मतदान करती हैं। यह प्रक्रिया उस समय तेज हो जाती है जब राजनीतिक दल जातिगत पहचान को भुनाने के लिए रणनीति बनाते हैं, जैसे – आरक्षण, जाति आधारित रैलियाँ, जाति प्रमुख नेताओं को टिकट देना आदि।


जातिगत ध्रुवीकरण की उत्पत्ति और विकास

भारत में जातिगत ध्रुवीकरण कोई नई परिघटना नहीं है। यह स्वतंत्रता से पूर्व भी सामाजिक संरचना में मौजूद था, लेकिन राजनीतिक मंच पर इसका तीव्र प्रभाव 1960 और 1970 के दशक के बाद दिखा, जब मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया। इसके बाद दलित, पिछड़ा वर्ग, मुसलमान, और अन्य जातीय समूहों की राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई और वे संगठित होकर मतदान करने लगे।


जातिगत ध्रुवीकरण के कारण

  1. सामाजिक असमानता:
    भारतीय समाज में सदियों से जाति के आधार पर असमानता रही है। यह असमानता दलितों, पिछड़े वर्गों और अन्य हाशिये पर खड़े वर्गों को संगठित करती है।
  2. राजनीतिक लाभ की रणनीति:
    राजनीतिक दल जातिगत जनसंख्या के आधार पर उम्मीदवार तय करते हैं ताकि अधिकतम वोट प्राप्त कर सकें। इससे जातीय गोलबंदी होती है।
  3. आरक्षण और प्रतिनिधित्व:
    जब किसी जाति को लगता है कि उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम है, तो वे एकजुट होकर किसी विशेष दल का समर्थन करते हैं जो उनके हितों की बात करता है।
  4. सांस्कृतिक पहचान की राजनीति:
    जातिगत पहचान को सांस्कृतिक और धार्मिक स्तर पर भी मज़बूती दी जाती है जिससे एक जाति विशेष खुद को अलग और संगठित महसूस करती है।

जातिगत ध्रुवीकरण के प्रभाव

1. चुनावों में प्रभाव:

जातिगत ध्रुवीकरण के कारण चुनावों में दल विशेष को जातीय वोट बैंक का समर्थन मिल जाता है। जैसे उत्तर प्रदेश में यादवों का झुकाव समाजवादी पार्टी की ओर और दलितों का झुकाव बहुजन समाज पार्टी की ओर रहा है।

2. राजनीतिक दलों की रणनीति पर असर:

राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र, उम्मीदवार चयन, भाषण और रैलियों में जातिगत समीकरणों को प्रमुखता देते हैं। वे किसी विशेष जाति के नेता को आगे लाकर उसे प्रतिनिधित्व देने की कोशिश करते हैं।

3. राजनीतिक अस्थिरता:

कभी-कभी जातिगत ध्रुवीकरण इतना तीव्र हो जाता है कि वह सामाजिक संघर्ष का रूप ले लेता है। यह राजनीतिक अस्थिरता, दंगे और हिंसा को जन्म देता है।

4. लोकतंत्र पर प्रभाव:

लोकतंत्र की असली भावना मुद्दों पर आधारित राजनीति है, लेकिन जातिगत ध्रुवीकरण इसे पहचान आधारित वोटिंग में बदल देता है जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होती है।


जातिगत ध्रुवीकरण के क्षेत्रीय उदाहरण

1. उत्तर प्रदेश:

यहाँ यादव, दलित, ब्राह्मण, मुस्लिम आदि जातियों का झुकाव विभिन्न दलों की ओर देखा गया है। समाजवादी पार्टी (यादव व मुस्लिम), बहुजन समाज पार्टी (दलित), भारतीय जनता पार्टी (ऊंची जातियाँ) ने जातीय आधार पर अपने वोट बैंक बनाए हैं।

2. बिहार:

यहाँ लालू प्रसाद यादव की राजनीति ने यादवों और मुसलमानों को एक साथ संगठित किया। वहीं, नीतीश कुमार ने कुशवाहा, कुर्मी और अन्य पिछड़ी जातियों को साथ लेकर सत्ता प्राप्त की।

3. हरियाणा और पंजाब:

इन राज्यों में जाट और सिख समुदायों का राजनीतिक वर्चस्व जातिगत ध्रुवीकरण को दर्शाता है।


जातिगत ध्रुवीकरण के लाभ

  1. हाशिये पर रहे वर्गों की जागरूकता:
    जातिगत ध्रुवीकरण ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को राजनीतिक भागीदारी का अवसर दिया।
  2. प्रशासन में प्रतिनिधित्व:
    जातियों के संगठित होने से वे राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर पहुँच पाए, जिससे उनकी समस्याएँ संसद और विधानसभा में उठीं।

जातिगत ध्रुवीकरण के दुष्परिणाम

  1. सामाजिक विभाजन:
    समाज जातियों में बँट जाता है जिससे एकता और भाईचारे को क्षति पहुँचती है।
  2. विकास के मुद्दों से भटकाव:
    जातिगत मुद्दों के कारण बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं।
  3. राजनीतिक अवसरवाद:
    नेता जातियों को केवल वोट बैंक समझकर उनका उपयोग करते हैं, वास्तविक विकास नहीं करते।
  4. जाति आधारित हिंसा:
    जातिगत ध्रुवीकरण कई बार हिंसक संघर्षों को जन्म देता है, जिससे सामाजिक स्थायित्व खतरे में पड़ता है।

जातिगत ध्रुवीकरण को रोकने के उपाय

  1. शिक्षा का प्रचार-प्रसार:
    लोगों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए ताकि वे जाति के बजाय मुद्दों पर वोट करें।
  2. चुनाव सुधार:
    चुनाव आयोग को सख्ती से जातिगत भाषणों और प्रचार पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
  3. राजनीतिक दलों की जवाबदेही:
    राजनीतिक दलों को केवल जाति के आधार पर टिकट न देकर योग्यता को प्राथमिकता देनी चाहिए।
  4. सिविल सोसाइटी और मीडिया की भूमिका:
    जातिगत ध्रुवीकरण के विरोध में समाज को जागरूक करना और विकासोन्मुख राजनीति को बढ़ावा देना मीडिया और NGOs की ज़िम्मेदारी है।

निष्कर्ष

जातिगत ध्रुवीकरण भारतीय राजनीति की एक जटिल वास्तविकता है। जहाँ यह हाशिए पर रहे समुदायों को जागरूक करता है, वहीं यह लोकतंत्र की मूल भावना को भी चोट पहुँचाता है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज और राजनीति दोनों स्तरों पर ऐसा वातावरण तैयार किया जाए जहाँ नागरिक जाति की दीवारों को तोड़कर विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार जैसे मूलभूत मुद्दों पर निर्णय लें।

भारत की राजनीति को जाति से नहीं, नीति से दिशा मिलनी चाहिए। तभी एक समतामूलक, समावेशी और सशक्त लोकतंत्र संभव हो पाएगा।


अगर आप चाहें, तो मैं इस उत्तर को PDF फॉर्मेट में भी तैयार कर सकता हूँ।

Leave a Comment