भारत की स्वतंत्रता के बाद राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता क्यों पड़ी? Bharat ki svatantrata ke baad rajyon ke punargathan ki avashyakta kyon padi

प्रश्न: भारत की स्वतंत्रता के बाद राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता क्यों पड़ी?
BACHELOR OF ARTS (BA) – THIRD YEAR (SESSION 2024–25)
SUBJECT: POLITICAL SCIENCE (STATE POLITICS IN INDIA) PAPER – II
SUBJECT CODE: – A3-POSC 2T
उत्तर (1000 शब्दों में):

Table of Contents

प्रस्तावना:

भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, लेकिन स्वतंत्रता के साथ ही एक बड़ी प्रशासनिक चुनौती सामने आई — भारतीय राज्यों का पुनर्गठन। आज़ादी के समय भारत विविधताओं से भरा एक देश था, जहां भाषाई, सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से अलग-अलग क्षेत्र थे। इन क्षेत्रों का एकीकृत और संगठित प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता महसूस की गई।


पुनर्गठन की आवश्यकता के प्रमुख कारण:

1. ऐतिहासिक विरासत और रियासतों की विविधता:

स्वतंत्रता के समय भारत में दो प्रकार के राज्य थे — ब्रिटिश भारत के प्रांत और लगभग 562 देसी रियासतें। इन रियासतों का आकार, जनसंख्या, प्रशासनिक व्यवस्था और शासकीय ढांचा एक-दूसरे से भिन्न था। इन रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत करना और एक व्यवस्थित प्रशासन बनाना आवश्यक हो गया था।

2. प्रशासनिक सुविधा और सुशासन:

कुछ राज्य इतने बड़े थे कि उनका प्रशासन कठिन हो गया था, वहीं कुछ इतने छोटे थे कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व टिक पाना मुश्किल था। पुनर्गठन का उद्देश्य राज्यों को इस प्रकार बनाना था कि वे प्रशासनिक दृष्टि से कारगर और कुशल बन सकें।

3. भाषाई आधार पर जनभावना:

भारत में विभिन्न भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती थीं। स्वतंत्रता के बाद विभिन्न भाषाई समुदायों ने अपनी-अपनी भाषाओं के आधार पर राज्य निर्माण की माँग तेज़ कर दी। लोगों की भावनाएं और सांस्कृतिक पहचान भाषा से जुड़ी थी, जिससे भाषाई आधार पर राज्य निर्माण की माँग एक सशक्त आंदोलन बन गई।

4. राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना:

रियासतों और विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान ने भारत की एकता को चुनौती देनी शुरू कर दी थी। यदि समय रहते लोगों की भावनाओं को उचित स्थान नहीं मिलता, तो यह अलगाववाद और विघटन की ओर भी ले जा सकता था। इसलिए एक ऐसा संतुलन ज़रूरी था जिसमें क्षेत्रीय आकांक्षाएं भी पूरी हों और राष्ट्रीय एकता भी बनी रहे।

5. राजनीतिक दबाव और आंदोलन:

तेलुगु भाषी लोगों ने 1952 में “आंध्र प्रदेश” नामक अलग राज्य की माँग को लेकर एक बड़ा आंदोलन चलाया। प्रसिद्ध नेता पोट्टी श्रीरामलु की भूख हड़ताल और उनकी मृत्यु ने इस आंदोलन को और अधिक गति दी, जिससे केंद्र सरकार को मजबूर होकर आंध्र प्रदेश राज्य बनाना पड़ा। इससे अन्य भाषाई समूहों को भी प्रेरणा मिली और भाषाई राज्यों की माँग बढ़ती गई।


राज्यों के पुनर्गठन की दिशा में उठाए गए कदम:

1. आंध्र प्रदेश का निर्माण (1953):

तेलुगु भाषी क्षेत्रों को मद्रास राज्य से अलग करके 1953 में आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना की गई। यह भाषाई आधार पर बने राज्यों में पहला उदाहरण था।

2. राज्यों पुनर्गठन आयोग की स्थापना (1953):

केंद्र सरकार ने 1953 में फज़ल अली आयोग (States Reorganisation Commission) की स्थापना की, जिसके अन्य दो सदस्य के.एम. पणिक्कर और ह्रदय नाथ कुंजू थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1955 में प्रस्तुत की, जिसमें भाषाई आधार को राज्यों के पुनर्गठन का मुख्य आधार माना गया।

3. राज्यों पुनर्गठन अधिनियम, 1956:

इस अधिनियम के माध्यम से 1 नवंबर 1956 को भारत में राज्यों की नई संरचना की गई। 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए। इसने भारत के संघीय ढांचे को नया स्वरूप दिया और क्षेत्रीय असंतोष को कम किया।


पुनर्गठन के प्रभाव:

1. क्षेत्रीय संतुलन की स्थापना:

पुनर्गठन के माध्यम से विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक क्षेत्रों को पहचान दी गई, जिससे क्षेत्रीय संतुलन बना और प्रशासनिक सुविधा में वृद्धि हुई।

2. राष्ट्रीय एकता को बल मिला:

संविधानिक प्रक्रिया और लोकतांत्रिक तरीके से राज्यों का पुनर्गठन कर केंद्र सरकार ने यह स्पष्ट किया कि भारत विविधता में एकता को मान्यता देता है।

3. आर्थिक और सामाजिक विकास में सहूलियत:

राज्यों को उनकी सांस्कृतिक और भाषाई विशेषताओं के अनुसार पुनर्गठित करने से वहाँ की नीतियाँ स्थानीय जरूरतों के अनुसार बनाई जा सकीं, जिससे विकास प्रक्रिया को गति मिली।


पुनर्गठन के साथ आई चुनौतियाँ:

1. निरंतर मांग और असंतोष:

एक राज्य बनने से अन्य भाषाई समूहों को भी प्रोत्साहन मिला और फिर अलग-अलग क्षेत्रों से नए राज्यों की मांग उठने लगी, जैसे — गोरखालैंड, विदर्भ, हरित प्रदेश आदि।

2. प्रशासनिक जटिलता:

नए राज्यों के निर्माण से प्रशासनिक ढांचे में बदलाव करना पड़ा और नई व्यवस्थाओं को स्थापित करना एक बड़ी चुनौती रहा।

3. राजनीतिक लाभ की कोशिशें:

कुछ राजनीतिक दलों ने क्षेत्रीय असंतोष को अपनी राजनीति का आधार बनाकर राज्य निर्माण की मांगों को हवा दी, जिससे केंद्र और राज्य के संबंधों में कभी-कभी तनाव उत्पन्न हुआ।


समकालीन संदर्भ में पुनर्गठन:

1990 और 2000 के दशक में भी राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया जारी रही। उदाहरण:

  • 2000 में उत्तराखंड (अब उत्तराखंड), झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य बनाए गए।
  • 2014 में आंध्र प्रदेश से तेलंगाना अलग कर नया राज्य बनाया गया।

इससे स्पष्ट होता है कि राज्य पुनर्गठन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो जनभावनाओं और प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप होती है।


निष्कर्ष:

भारत की स्वतंत्रता के बाद राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि देश को एक सशक्त, संगठित और प्रशासनिक रूप से सक्षम संघ बनाना था। भाषाई और सांस्कृतिक विविधताओं को सम्मान देना, प्रशासनिक दक्षता को सुनिश्चित करना, और लोकतांत्रिक भावना को बनाए रखना इस प्रक्रिया के मूल उद्देश्य थे। राज्यों का पुनर्गठन भारतीय लोकतंत्र की सफलता का एक जीवंत उदाहरण है, जिसमें विविधताओं को स्वीकार कर एकता को मज़बूत किया गया।


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